सर्द लम्हों में यूँ ही सोचता हूँ..
सर्द लम्हों में यूँ ही सोचता हूँ
काश मैं भी एक परिंदा होता
ना उड़ने की कोई सीमा होती
ना गिरने का कोई डर होता
ना हद होते, ना कोई दायरे
ना समाज द्वारा बनाया कोई सरहद होता
बस खुल के जीने की एक आज़ादी होती
मस्तानि रातें होती, सुनेहरा सवेरा होता
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